July 27, 2021, Tue, 40:07:29
By Shree Navatan Dham (SND), (SND)
श्रीमुखवाणी सन्देश
श्रीमुखवाणी सन्देश
श्रीमुखवाणी सन्देश
By Shree Navatan Dham (SND), (SND)
2021-07-27
श्रीमुखवाणी सन्देश

Shree Navatan Dham (SND)

महामति श्रीप्राणनाथ प्रदत श्रीमुखवाणीको कुल अठार हजारसातसय अन्ठाउन्न (१८,७५८) चौपाईहरुबाट उद्धत विशेषसन्देशमुलक प्रकरणहरुका चौपाईहरुको प्रस्तुति :-
श्रीकृष्ण नाम महिमा :
पर न आवे तोलेँ एकने, मुख श्रीकृष्ण कहन्त |
प्रसिद्ध प्रगट पाधरी, किवता किव करन्त ॥
कोट करो नर मेध, अश्वमेध अनन्त ।
अनेक , धर्म धरा विषे, तीरथ वास बसन्त ॥
सिद्ध करो साधना, विप्र मुख वेद बढदन्त।

सकल किया सूँ धरम पालतां, दया करो जीव जन्त ॥
व्रत करो विध विधना, सती थाओ सीलवंत।
वेष धरो साधो संतना, गनानी गनान कत ॥
तपसी बहु विध देह दमो, सरवा अंग दुःख संहत।पर न आवे तोले एकने, मुख श्रीकृष्ण कहन्त ॥धर श्रीधाम अने श्रीकृष्ण, ए फल सार तणो तारतम ।तारतमे अजवालुँ अति थाय, आसंका नव रहे मन माह ॥बिना श्रीकृष्णजी जेती मत, सो तूँ जानियो सवे कुमत ।वडी मत सो कहियो ताय, श्री कृ्‌ष्णजी सों प्रेम उपजाय ॥श्रीकृष्णसों प्रेम करे बडी मत, सो पहुंचावे अखंड घर जित ।ताय आडो न आवे भवसागर, सो अखण्ड सुख पावे निज घर ॥
शास्त्रहरु को मान्यता :
जिन जानो शास्त्रों मैँ नहीं, है शास्त्र मे सव कुछ।
पर जीव सृष्टि क्या जानही, जिनकी अकल हौँ तुछ॥
शास्त्र पुराण वेदान्त जो, भागवत पूरे साख |
नहीँ कथा ए दन्तर्नी, सत वाणी ए वाक ॥
शास्त्रै मारग वेर कह्या, त्रीजो न कह्यो कोई ।
एक बाट बैकुण्ठ तणी, बीजी स्वर्ग जमपुरी जोए ॥
शास्त्रा मँ सबे सुध पाइए, पर सतगुरु विना क्यों लखाईए ।
सब शास्त्र सबद सीधा कहेँ, पर ज्योँ मेर तिनके आडे रहे ॥
वेदान्त गीता भागवत, दैयाँ इसारत सव खोल।
मगज माइनेँ जाहेर किए, माह गुझ हते जो वोल॥
गुरु महिमा :
सतगुरु साधो वाको कहिए, जो अगम की देवे गम ।
हद बेहद सबै समभावे, भाने मनको भरम ॥
महामति कहे गुरु सोहि कीजे, जो अलख की देवे लख ।
इन उल्टी से उलटाय के, पिया प्रेम करे सनमुख ॥
खोज बडी संसार रे, तुम खोजो साधु खोज बडी संसार ।
खोजत खोजत सतगुरु पाइए, सतगुरु संग करतार ॥
शास्त्र ले चले सतगुरु सोई, बानी सकलको एक अर्थ होई ।
सब स्यानो की एक मत पाई, पर अजान देखे रे जुदाई ॥
यामैँ बडी मत को लीजे सार, सतगुरु यही देखावे पार ।
इतहीं बैकुण्ठ इतहीं सुन, इतहीं प्रकट पूरन पार ब्रह्मा ॥
प्रेम :
इसको बडा रे सबन मैं ना कोई इसक समान ।
एक तेरे इसक विना, उड गई सव जहान |
चौदे तवक’ हिसाव में हिसाव निरंजन सुन ।
न्यारा इसक हिसाब थे, जिन देख्या पिउ वतन ॥
प्रेम खोल देवे सव द्वार, पारै के पार जो पार
प्रेम धाम धनी को विचार, प्रेम सब अंगोँ सिरदार ॥
पंथ होवे कोट कलप, प्रेम पहचावे मिने
पलक |
जव आतम प्रेम सौं लागी, दृष्टि अन्तर तवही जागी |
कहा भया जा मुख ते कह्यो, जव लग चोट न निकसी फृट।

श्रमबान तो ऐसे लगत हैँ, अंग होत है टक टुक ॥
सत व्रत धारणसूँ पालिए, जिहाँ लगे उभी देह ।
अनेक विधन पडे जो माथे, तोहे न मुकिए सनेह ॥
उतपन्न प्रेम पार ब्रह्म संग, वाको सपन हो गयो संसार ।
प्रेम विना सुख पार को नाही, जो तृम अनेक करो आचार ॥

तारतमको महिमा :
तारतम रस वेहद का, सब जाहिर किया ।
बहुत विध सुख साथ को, खेल देखते दिया ॥
तारतम रस वाणी कर, पिलाइए जाको ।
जहर चढया होय जिमीका, सुख होय ताको ॥
जहर उतारने साथ को, ल्यायै तारतम ।
वेहद का रस श्रवने, पिलावें हम॥
एही रस तारतम का, चढ्या जहर उतारे ।
निरविषी काया करै, जीव जागे करारे ॥

विनम्रता :
ज्यो ज्यो गरीबी लीजे साथ में, त्यों त्यों धनीको पाइए मान ।
इत दोए दिनका लाभ जो लेना, एही वचन जानो जो परवान ॥
अनेक अवगुण किए मैं साथ सों, सोए प्रकासूँ सव ।
छोड अहंकार रहूं चरन तले, तोबा खैँचत हूँ अव ॥
साथजी सुनो सिरदारो, मुझ जैसी न कोई दुष्ट।
धाम छोड झूठी जिमी लगी, चोर चण्डाल चरमिष्टर ॥
मै तो बिगडया विश्व थे बिगड्या, बाबा मेरे ढिग आओ मत कोई ।
वेर बेर बरजत हो रे बाबा, ना तो हम ज्यो विगडेगा सोई ॥
रोम रोम कै कोट अगगुन, ऐसी मैं गुन्हँगार ।
ए तो कही में गिनती, पर गुन्है को नाही सुमार ॥

वैष्णब :
हो भाई मेरे वैष्णब कहिए वाको, निरमल जाकी आतम ।
नीच करम के निकट न जावे, जाए पहचान भई पारव्रह्म ॥
जब वैष्णब अंग किए रे अप्रसँ, ओर कैसी अप्रसाई ।
परस भयो जाको पुरुषोत्तम सो, सो बाहेर न देवे देखाई ॥
उत्तम भेष धरो बैस्तव के, और बैष्णब आप कहाबो ।.
जो वैष्णब बस करे नब अंग, सो वैस्तव क्यों न जगावो ॥
आचरण :
कदि केहेनी कही मुख से, बिना रेहेनी। न होवे काम ।
रेहेनी रूहँ पहुंचावहीँ, केहेनी लग रहे चाम ॥
केहेनी सुननी गई रात में, आया रेहेनी का दिन ।
विन रेहेनी केहैनी कछुए नहीं, होए जाहेर अरस बका वतन ॥
निसदिन ग्रहिए प्रेम सो, श्री जुगल स्वरुप के चरन |
निरमल होना याहि सौ, और धाम वरनन॥
खातै पीते उठते बैठते, सोवत स्वपन जाग्रत।
दम ना छोडे मासूकै को, जाको होए हक निसवत ॥
हर्को बरनन फेर फेर करे, फेर फेर एही बात ।
एही अरस रुहोँ खाना पीवना, एही वतन बिसात ॥
पीबना तमाखु छोड दो, और मांस मछली सव ।
शराब और सब कैफ, परदारा चोरी न कब॥

सहिष्णुता :
जो देत कसला तुमको, तुम भला चाहियो तिन।
सरत धाम की न छोडियो, सूरत पीछे फिराओ जिन ॥
अवगुण काढे गुण ग्रहे, हारे से होए जीत।
साहेब) सोाँ सनमुख सदा, त्रम्हसृष्टि का एह रीत॥
अब जो घडी रहो साथ चरणे, होये रहियो तुम रेनु समान ।
इत जागे को फल यही है, चेत लीजो कोई चतुर सुजान ॥
आत्मसाक्षी :
जोलों आतम न देवे साख, तोलों परमोध’ भले दीजे दस लाख ।
पर सो क्योए न लागे एक वचन, जोलोँ न समभझे आतम बुध मन ॥
समभझे विना सुख पारको नाही, जो उधम करो कई लाख ।
तोला प्रेम न उपजे पूरा, जोलों अंदर न देवे साख ॥
भ्रात आडी जहां भाजे नहीं, तहाँ माहेथी न पूरै साख ।
वचन रुदेर प्रकासी ने, जहाँ आतमा न देखे साख्यात ॥

आडम्बरता को खंडनी :
कोई बढाओ कोई मुढाओ, कोई खैँच काढो केस ।
जोलों आतम न ओलखी, कहा होए घरे बहु भैष॥
सौ माला बाओ गले में, द्वादस करो दस वेर।
जोलो प्रेम न उपजे पिउसों, तोलोां मन न छोडे फेर ॥
धनी न जाए किनको धृूत्यो, जो कीजे उनेक धुतार ।
तुम चेहन उपर के कै करो, पर छुटे न क्योंए विकार ॥
अस्तान करी छापा तिलक देओ, कंठ आरोपो तुलसी माल ।
गिनानी कहाओ साध मंडली, पण चालो छो केही चाल ॥
वेख उत्तम तमे धरो, पण माहँलो ते मैल न धुओ ।
पंथ करो छो केही भोम नों, रुदै आंख उघाडी जुओ ॥

गोविन्द के गुण गाएके, तापर
धिक धिक पडो ते मानवी, जो बेचत है भगरवारी ।
देहरे मसीत अपासरे, ए सब लगे माह शेर ॥
बाहेर देखाए बंदगी, माहे माया मोह अहंकार
कुरान जिनों न बिचारिया, जलो सो तिनकी म५”

जौ न जागी रसूल हुकुमें, हाय हाय आग परो गफलत
हराम न छूटया दिलसे, छल द्वस्ट हुई बाहेर ।
राह भूले मुसलिम की, हाय हाय बुरी हृई जाहेर
महंमद के कहाव ही, पर पूरे न लगे दिन दे
तो मुसाफ’ न पाया मगज, हाय हाय जान बझ जलेए
ब्राम्हण कहे हम उत्तम, मुसलमान कहे ह्म बक &
दोक मुठी एक ठौर की, एक राख दूजी खाक
हिन्दू मुस्लिमको खंडनी :॥
आन्तरिक पवित्रता :
अन्दर नाही निरमल, फेर फेर नहावे बाहेर। ।
कर देखाई कोट बेर, तोहे न मिले करतार ॥ ।
कोट करो वंदगी, बाहेर हो निरमल ।
तोलों न पीउ पाइए, जोलों न साधे दिल ॥
जैसा बाहेर होत है, जो होए ऐसा दिल।
तो अधखिन पीउ न्यारा नहीं, माहे रहे हिलमिल ॥
मन मैला धूओ नाही, अने उजाला करो आकार |
आकार तिहां चाले नहीं, चाले निरमल निराकार ॥

गुमराह अगुवाहरुको खंडनी :
धिक घिक ज्ञाता ज्ञान को, जिन उलटी फिराई मत ।
सो अगुए जलो आग में, हाय हाय करी वडी हरकत ॥
ज्यो घायल साप को चीटियां, लगियां विना हिसाव ।
त्यों अगुओं को दुनिया, मिल कर देसी ताव ॥
आग दुनी को एक है, अगुओं को आग दोय।
एक आग दुनी की, दूजे अपने दुख को रोय॥
जन बुझ के जो भूले, चले न फुरमाए पर।
सो लटके सूली आग की, हाय हाय जो हुए बडे वेडर ॥
दुष्ट थई कुकरम करे, ते जाए जमपुरी रोए।
पण साध थई कुकरम करे तेनूँ ठाम न देखूँ कोए ।

मनको प्रबलता :
मन से हारे हारिए, मन सै जीते जीत।
मन ही देवे सत साहेवी, मन ही करे फजितौ ॥
मन ही बांधे मन ही खोले, मन तम मन उजास।
ए खेल सकल है मनका, मन नेहचलर मन ही को नास ॥
मन उपजावे मन ही पाले, मन को मन करे संहार ।
पाँच तत्व इन्द्री गुन तीनोँ, मन निरगुन निराकार ॥
मन ही मैला मन ही निरमल, मन खारा तीखा मन मीठा ।
एही मन सबन को देखे, मन को किनहुँ न दीठा॥
सब मन मेँ न कछु मन में खाली मन मन ही मैं व्रह्म ।
महामत मन को सोई देखे, जिन द्रष्टे खुद खसग ॥
एकेश्वरवाद-सर्वधर्म समन्वय :
बोली सबों जुदी परी, नाम जुदा धरे सबन।
चलन जुदा कर दिया, ताथें समझ न परी किन ॥
खसमौी एक सबवन का, नाहिन दूसरा कोई।
ए विचार तो करे, जो आपे साँचा होई॥
जुदे जुदे नामै गावही, जुदै जुदे भेष अनेक ।
जिन कोई झंगडो आपमेँ, धनी सबों का एक॥
नाम सारौं जुदे धरे, लइ सबोौं जुदी रसम।
सब में उमत और दुनियां, सोई खुदा सोई व्रह्म॥
जो कल्नु कह्या कतेव ने, सोई क्या वेद।
दोक बन्दै एक साहेव के, पर लडत विना पाए भेद ॥
जुदे जुदे भेष दरसनी, अनेक इष्ट आचार।
धरे नाम धनी के जुदे जुदे, पैडे चले माया मोह अहंकार ॥
पारव्रह्म तो पूरन एक हैँ, ए तो अनेक परमेश्वर कहाबे ।
अनेक पंथ सबद सब जुदे जुदे, और सब कोई सास्त्र बोलावे ॥

भक्तिमा अनन्यता :
पतिव्रता परे सेविए न थाए वेश्या जेम।
एक मेलिनेरै अनेक कीजे, तेणी थाय धणीवट केम ॥
पतिव्रता नारी ते पति ने पूजे, सेवे अनेक पेरे।
पीउ पर बचन सुणे जो वांक्‌, तो देह त्याग त्यहां करे ॥
पुरुष परें द्रष्टै न आवे, ए अवलापणें लीजे अंग ।
पुरुष नथी ए बिना कोई बीजो, जो रमे नेहेचल लीला रंग ॥

बेद कतेवको समन्वय :
लोक चौदे कहे वेदने, सोई कतेव चौदे तवक ।
वेद कहे व्रह्म एक है, कतेव कहे एक हक ॥
तीन सृष्टि कही वेद ने, उमत तीन कतेव ।
लेने न देवे माएने, दिल आडा दुसमन फरेवौ ॥
दो कहे वजूद एक है, अरवारै सब मे एक ।
वेद कतेव एक बतावही, पर पावे न कोई विवेक ॥
बिस्तु अजाजील फिसस्ता, ब्रह्म मेकाइल ।
जवबराइल, जोस धनीय का, रुद्र तामस अजराइल ॥
मलकूत कह्या बैकुण्ठ को, मोहतत्व अंधेरी पाल ।
अक्षर को नूर जलाल, अक्षरातीत नूरजमाल ॥
ब्रह्मसृष्ट कहे मोमिन को, कुमारका फिरस्ते नाम ।
ठौर अक्षर सदरतुलमुतहा, अरसुलअजीम सो धाम ॥
श्री ठकुरानीजी रुहअल्ला, महंमद श्री कृ्‌ष्णजी स्याम ।
सखिया रुहँ दरगाह की, सुरत अक्षर फिरस्ते नाम ॥
ए वेवरा वेद कतेव का, दोनों की हकीकत।
इलम एकै विध का, दोक की एक सरत॥
बांकी तो वेद कतेब, दोक देत हैं साख।
अंदर दोक के गफलतोैँ, लडत वास्ते भाख ॥

वसुध्वैवकुदुम्बकम्‌ :
बाघ बकरी एक संग चरे, कोई न किसीसों बैर।
पसु पंखी सुखेँ चरे चुगें, छुट गयो सव को जेहर॥
सुर असुर क्वम्हाण्ड में, मिल कर गावसी ए सुख।
इन लीला को जो आनन्द, बरन्यो न जाय या मुख ॥
वली जो जोरे तमेँ सास्त्र संभारी, एणी पेरे वोले वाणी |
कुजर’ कथुआ मेरु’ माणस माहीँ, सरवे एकज प्राणी ॥
अन्न उदक बाए कीट पतंग मा, सकल कहे छे व्रह्म |
देखीता आंधला थाए, पछे बांधे अनेक पेरे करम ॥
एक सृष्टि धनी भजन एकै, एक गान एक आहार ।
छोडके बैर मिले सव प्यार सो, भया सकल में जै जैकार ॥

क्षणभंगुरता :
मेरी मेरी करत दुनी जात हँ, बोझा ब्रम्हाण्ड सिर लेवे ।
पाव पलक का नहीं भरोसा, तो भी सिर सरजनको न देवे ॥
नहीँ भरोसा खिन को, बरस मास और दिन।
यह तो दम पर बांधिथा, तो भी भूल जात भजन ॥
देखे सातो सागर, और देखे सातौं लोक।
पाताल सातौं देखिया, जागे पीछि सब फोर्के॥
ए घर जाणो छो अखंड अमारु, कपर उभो न देखो रे काल।
तमारी द्रष्टे कै रे जाए छे, तो तमे रहो छो केटलिक ताल ॥
खिन एक लेहु लटक भंजाए ।
जनमत ही तेरो अंग झूठो, देखत ही मिट जाए ॥
रे जीव निमख के नाटक में, तू रह्यो म्यों बिलमाए ।
देखत ही चली जात बाजी, भूलत क्यों प्रभु पाए॥

ब्रह्म प्राप्ति :
पहले आप पहेचानो रे साधो, पहले आप पहेचानो ।
बिना आप चिने पार व्रह्म को, कौन कहेँ मैं जानो ॥
जव ते एह आशा मेटी, तव तो तु साहेवसों भेटी ।
जोलों कछु देखे आपा, तोलों साहेव सो नहीं मिलाप ॥
जोलों कछुए आपा रखे, तोला सुख अखंड न चखे ।
तसबी गोदडी करवा, छोडो जनेक हिरस हवार ॥
दोक जहान को करो तरक, एक पकडो जो साहेव हक ।
या हंस कर छोडो या रोए, जिन करो अंदेसा कोए ॥
नफरसौँ’ ,.से करो सवर, मारो हिरस हवा परहेज कर ।
दिलसे दृढ करो सवर, सावित वंदगी मौला पर ॥
दूर करो जो विना हक, करो उस्तवारी जो वुजरक ।
लुत्फ मेहेरवार्न’ पाओ भेद, छुटो तिनसे जो है निखेद” ॥
बका चाहे सो फना होए, बिना फना वका न पावे कोए ।
छोडो ना चीज जो कमतर, ताथें फना होउ बका पर ॥
ए इलम’ ए इसक, दोनोें हक को चाहे।
जिनको जो देत हैं, सो लेवे सिर चढाए ॥

संसारको असारता :-
झभूठा खेल कवीले झठे, भझ्ठै झठा खेले।
सब झूठे पूजे खाए पीए भझठे, झूठै झूठा बोल ॥
झूठा सव लगेगा मीठा, झूठा कुटुम्ब परिवार ।
सुख दुख इनमें झूठी चरचा, हुआ सव भझूठैका विस्तार ॥
आसमान जिमी पाताल लग, सबे झूठे झूठा मंडल ।

ऐसे भझभठे खेलमे, तुम जाओगे सब रल॥
तेहेकीक’ जानोगे झूठ है, तोभी दिलसेन छुटे एह।
ऐसी मोहोबत बांधोगे, भाठै सौं सनेह ॥
सोहागिन लक्षण :

यकीन न छुटे सुहागिनीर, जो परे अनेक विघन ।
प्यारी पीउ के कारने, जीवको ना करे जतन ॥
रहवे निरगुन होए के, और आहार भी निरगुन ।
साफ दिल सोहागनी, कबू्‌ँ ना दुखावे किन॥
कपर कांह्‌ ना देखाबही, जो दम ले ना सके छिन ।
सो प्यारी जाने या पीया, या विध अनेक लक्षन ॥
बिचार विचार विचार ही, बेधेँ सकल संधान ।
रोम रोम ताय भेदहीं, सत्य सबद के वान॥
छिन खेले छिन मे हंसे, छिन मैँ गावे गीत।
छिन रोवे सुध ना रहे, ये सोहागिनी की रीत॥
पीउ बातेँ खेले हंसे, गीत पिया के गाय।
रोवे उरझे पीउ की, बातन सोँ मुरछाए॥

बिरहिनको दशा
बिरहिन होवे पीउ की, वाको कोई न उपाय ।
अंग अपने बैरी हुए, सव तन लियो है खाय॥
ना बैठ सके विरहिनी, सोय सके ना रोय।
राज पृथ्वी पांव दाव के, निकसी या विध होय ॥
बिरहा न देवे बैठने, उठने भी ना देय।
लोट पोट भी ना कर सके, हक हृक स्वांसा लेय ॥
ये दरद तेरा कठिन, भूषण लगे ज्या दाग ।
हेम हीरा सेज पसमी, अंग लगावे आग॥
सव तन विरहेँ खाइया, गल गया लोह्‌ मांस ।
ना आवबे अन्दर बाहिर, या विध सूखत स्वांस ॥
हाड हुए सव लकडी, सिर श्रीफल विरह अगिन ।
मांस मीज लोह्‌ रंगा, या विध होत हवन ॥
काम क्रोध दिमाक।
सो विना विरह न जले, होए नहीँ दिल पाक॥

आत्मसमर्पण :
हम तो हाथ हुकुम के, हक के हाथ हुकुम।
इत हमारा क्या चले, ज्यो जानो त्याँ राखो खसम ॥
साथजी सोभा देखिए, करे कुरबानी आतम ।
बार डारों नख सिखलों, कपर धाम धनी खसम ॥
करवानी को सब अंग, हंस हंस दिल हरषत ।
पीउ पर फना होवने, सब अंगौं नाचत॥
मैँ तो अपना दे रही, पर तुमही राख्या जीव।
बल दे आप खडी करी, कछ्नु कारज अपने पीउ ॥
जिन दिस मेरा पिउ बसे, तिन दिस पर होउं कुरवान ।
रोम रोम नख सिखलों, वार डारों जीव से प्रान॥

दुःखको बढाई :
दुःख से पीउजी मिलसी, सुखेँ न मिलिया कोय
अपने धनी का मिलना, सो दुःख हीसे होय ।
दुखतँ विरह उपजे, विरहे प्रेम इसक ।
इसक प्रेम जव आइयां, तव नेहेचे मिलिए हक ॥
दुःख प्यारो है मुझको, जासों होए पीउ ।
कहाँ करो मैं तिन सुखको, आखर जित जलन ॥
ईन अवसर दृःख पाइए, और कहा चाहिएत है तोहे ।
दुःख विना चरन कमलको, सखी कबू न मिलिया कोहे ॥
जिन सुख पीउजी न मिले, सो सुख देउ जलाए |
जिन दुःख मेरा पीउ मिले, मैं सो दुःख लेउ बुलाए ॥
रात दिन दुःख लीजिए, खाते पीते दु:
उठते बैठते दुःख चाहिए, यों पीउसों होइए सनमुख ॥
दुःख बिना न होवे जागनी, जो करे कोट उपाय ।
धनी जगाए जागहीं ना तो दुःख बिना क्योएन जगाए ॥

उलटवासी :
बिन्दी में सिन्ध, समाथा रे साधो, विन्द में
त्रिगुण स्वरुप खोजत भए विसगय, पर अलख न जाए लखाया॥
एक वचन इत यो सुनाय, चीटी पांव कुजररै बंधाए ।
तिनकै परवत ढांपिया, सो तो काहुँ न देखिया॥
सुई के नार्कै मंझार, कुंजर कई निकसे हजार।
यह अर्थ भी हो सी इतहीं, तारतम आसंका राखे नाहीं॥
विसरी सुध शरीर की, बिसर गए घर।
चीटी कुंजर निगलिया, अचरज या पर ॥
या विध मेला पीउका, पीछे न्यारे नहीं रैन दिन।
जल मेँ न्हाइए कोरे रहिए, जागिए माह सुपन ॥

अस्पृश्यता :
जात भेष कपर के, ए सब छल की जहान ।
जो न्यारा माहँ बाहेर से, तुम तासों करो पेहेचान ॥
एक भेष जो विप्रका, दूजा भैष चांडाल।
जाके छुए छुत लागे, ताके सँग कौन हवाल ॥
चाण्डाल हिरदै निरमल, खेले सँग भगवान ।

देखलावे नहीं काहुँ को, गोप राखे नाम॥
अन्तराय नहीं छिन की, सनेह साँचै रंग।

अहिनिस दृष्टि, आतम की, नहीं देह सों सँग॥
विप्र भेष बाहर दृष्टि, षट करम पाले वेद।
स्याम खिन सुपने नहीं, जाने नहीं व्रह्म भैद॥
उदर कदुम्व कारने, उत्तमाई देखावे अंग।
ब्याकरण वाद विवाद के, अरथ करे कई रंग ॥
अब कहो काके छुए, अंग लागे छोत ।
अधम तम विप अंगे, चाण्डाल अंग उद्योत ॥
पहिचान सबों को देह की, आतम की नही दृष्टि ।
वेराट’ैं का फेर उलटा, इन विध सारी सृष्टि ॥
हिन्दू धर्म रक्षार्थ आह्वान :
राजा ने मलो रे राणें राय तणों, धरम जाता रे कोई दौडो।
जागो ने जोधा रे उठ खडे रहो, वनीद निगोडी रे छोडो ॥
छुटत है रे खडग छात्रयों से, धरम जात हिंदुआन ।
सत न छोडो रे सतवादियो, जोर वढ्यो तुरकान ॥
सिध ने साधो रे संतो महन्तो, वैष्णव भेष दरसन ।
धरम उछेदै रे असुरे सबन के, पीछे परचा देओगे किस दितत ॥
सुनियो पुकार रे स्याने संत जनों, जो न दोडया जाते सत ।
गए ने अवसर पीछे कहाँ करोगे, कहाँ गई करामात ॥
त्रैलोक में उत्तम खंड भरत को, तामेँ उत्तम हिन्दू धरम ।
ताकी छत्रपतियाँ के सिर, आए रही इत सरम॥
लसकर असुरों का चहुँ दिस फैलया, वाढ्यो अति विस्तार ।
वन रे जंगल हिन्दू रहे पर्वतों, और कर लिए सब धुँघुकार ॥
हरद्वार ढहाय उठाए तपसी तीरथ, गौ वध कईयों विघन ।
ऐसा जुलम हुआ जगमेँ जाहेर, पर कमर न बांधीरे किन ॥
प्रभु प्रतिमा रे गज पांव बांधके, धसीट के खण्डित कराए ।
फरसबंदी’ ताकी करके, तापर खलक चलाए ॥
असुरेँ लगाया रे हिन्दूओं पर जेजियाँ, वाको मिले नहीं खानपान ।
जो गरीब न दे सके जेजिया, ताए मार करे मुसलमान ॥
वात ने सुनी रे बुंदेले छत्रसाल ने आगे आए खडा ले तलवार ॥
सेवा ने लई रे सारी सिर खैँच के सांईए किया सेन्यापति सिरदार ॥

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